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रीम्स में ऑर्थोपेडिक पोस्टग्रेजुएट ट्रेनिंग से क्लीनिकल डायग्नोसिस सुधरेगा—जानें कैसे
UMUJJWAL MISHRA
Oct 04, 2025 09:17:46
Ranchi, Jharkhand
आज इंडियन ऑर्थोपेडिक एसोसिएशन और रिम्स के हड्डी रोग विभाग द्वारा संयुक्त रूप से पोस्टग्रेजुएट (पीजी) टीचिंग कोर्स इन ऑर्थोपेडिक्स का आयोजन किया जा रहा है,
वही रिम्स निदेशक डॉ. राजकुमार का कहना है कि
60 वर्ष की आयु के बाद लगभग सभी में डिस्क प्रॉमिनेंट हो जाती हैं। इनमें से एक-दो डिस्क ऐसी हो सकती हैं जो नस (नर्व) पर दबाव डालती हैं। यदि कोई छात्र या डॉक्टर यह ठीक से नहीं समझता कि कौन-सी नस दब रही है—क्लीनिकल एग्ज़ामिनेशन के आधार पर—और केवल एमआरआई देखकर ऑपरेशन कर देता है, तो ऐसी स्थिति में ऑपरेशन के सफल न होने की संभावना अधिक रहती है।
इसीलिए रिम्स द्वारा ऑर्थोपेडिक एसोसिएशन के सहयोग से जो ट्रेनिंग करवाई जा रही है, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। मैंने स्वयं जब यहां आया था, तो कुछ सेशंस देखे थे, खासकर जब हड्डी में संक्रमण (इन्फेक्शन) हो जाता है और बोन डेड हो जाती है, उस विषय को बहुत अच्छे तरीके से पढ़ाया गया था。
एक समय था जब थर्ड ईयर से ही क्लासेस नियमित रूप से शुरू हो जाती थीं। लेकिन आज का युग प्रतिस्पर्धा (कंपटीशन) का है, तो विद्यार्थी अधिकतर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे रहते हैं। इवनिंग क्लीनिक्स में वे भाग नहीं लेते। हमने पहले की यूनिवर्सिटी में बहुत कोशिश की कि शाम को टीचिंग हो, लेकिन छात्र आते ही नहीं थे。
अब एग्ज़ामिनेशन का पैटर्न भी थोड़ा बदल गया है। पिछले 20 वर्षों में मेडिकल साइंस में काफी प्रगति हुई है, लेकिन जो क्लीनिकल प्रोफाइल पहले मरीजों से बातचीत और जांच के आधार पर मिलती थी, जिससे हम 90% तक डायग्नोसिस कर लेते थे, वह कहीं न कहीं गायब हो चुकी है।
इस ट्रेनिंग के माध्यम से उसी क्लीनिकल अप्रोच का एक तरह से पुनरुद्धार (revival) हो रहा है, और यह प्रशिक्षण बेहद उपयोगी (fruitful) सिद्ध होगा। ऑर्थोपेडिक विभाग के एचओडी डॉ. गुप्ता ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है, और मुझे विश्वास है कि यह प्रोग्राम अत्यंत सफल रहेगा।
वही रिम्स की प्रभारी निदेशक डॉ. शशिबाला सिंह का कहना है कि जो यह कार्यक्रम चल रहा है, वह ऑर्थोपेडिक विभाग की ओर से और ऑल इंडिया ऑर्थोपेडिक एसोसिएशन के सहयोग से आयोजित किया गया है। इस तरह के कार्यक्रमों का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि इसमें देशभर से अनुभवी फैकल्टीज़ आती हैं, और रिम्स ही नहीं, बल्कि अन्य मेडिकल कॉलेजों के पीजी स्टूडेंट्स और ऑर्थोपेडिक डॉक्टर भी इसमें भाग लेते हैं।
इन क्लासेस के माध्यम से छात्रों को न सिर्फ पढ़ाई में लाभ होता है, बल्कि उन्हें नवीनतम सर्जरी तकनीकों और इन्वेस्टिगेशन मेथड्स के बारे में भी जानकारी मिलती है। यह उनके लिए एक तरह की एडवांस ट्रेनिंग है, जो भविष्य में उनके क्लिनिकल काम में बहुत उपयोगी सिद्ध होती है।
अभी आपने देखा होगा कि यहां जो मरीज बैठे हैं, वे विभिन्न प्रकार की समस्याएं लेकर आते हैं। अब सवाल यह है कि क्लिनिकली उनका डायग्नोसिस कैसे किया जाए? पहले क्या होता था — एक्स-रे करवा लिया, एमआरआई करवा लिया, और फिर डायग्नोसिस किया। लेकिन असल में किसी भी रोग को समझने के लिए सबसे ज़रूरी है क्लीनिकल जांच。
आपको सबसे पहले मरीज से बातचीत करनी चाहिए — उसे क्या तकलीफ है, वह कब से है, कैसे बढ़ रही है — इन सभी बातों से लगभग 50% डायग्नोसिस वहीं हो जाता है। उसके बाद जब आप मरीज की फिजिकल जांच करते हैं, तो 25% और स्पष्टता मिलती है। अंत में इन्वेस्टिगेशन और अन्य टेस्ट्स से पूरी तस्वीर सामने आती है।
इस ट्रेनिंग का उद्देश्य यही है कि पीजी स्टूडेंट्स सिर्फ थ्योरी ही नहीं, बल्कि प्रैक्टिकल और क्लिनिकल स्किल्स में भी मजबूत हों। और इस तरह के सत्रों से उन्हें न सिर्फ वर्तमान, बल्कि भविष्य की चिकित्सा पद्धतियों की तैयारी भी मिलती है।
बाइट: डॉ राजकुमार ,रिम्स निदेशक।
डॉ. शशिबाला सिंह,रिम्स प्रभारी निदेशक。
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