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हरियाणा के डीजीपी: बदमाशों से निपटने के लिए पुलिस ने जनता से जुड़ाव बढ़ाया
AKAshok Kumar1
Dec 03, 2025 03:47:37
Noida, Uttar Pradesh
जादू की झप्पी
पुलिस के जवान बदमाशों से खुलेआम दिन-रात बिना डरे-थके लड़ते है। घर अकेले जाते हैं। अकेले रहते हैं। इन्हें चाहिए जादू की झप्पी।
ओ. पी. सिंह, डीजीपी, हरियाणा
समय वर्तमान से भविष्य की ओर बिना रुके चलता रहता है। इसे कोई परवाह नहीं है कि कोई सो रहा है कि जाग रहा है। पहिया घूमता ही रहता है। एक और बात - समय समय में बड़ा फ़र्क़ होता है। अच्छा गोली की तरह निकल जाता है, बुरा काटे नहीं कटता।
सुविधा के लिए आदमी ने समय को मापना शुरू किया। सेकंड, मिनट, घंटे, दिन, महीने, साल सब इसी के दिमाग़ की उपज है। शुरू के बीस-पचीस साल इस बात के लिए है कि आप अपने को किसी बीमारी का इलाज घोषित करें। जिसको दरकार होगी वो आपको ढूँढ लेगा। उसका काम हो जाएगा। आप बाज़ार में फिट हो जाएँगे। किसी को बताना नहीं पड़ेगा कि आप क्या कर रहे हैं। चीज़ें माँगनी नहीं पड़ेगी, आप ख़रीद पायेंगे। बेरोज़गारी के शोर-शराबे के बीच मेरा अब भी मानना है कि अगर आपके पास किसी समस्या का समाधान है तो दुनियाँ आपकी है।
लोग पूछते हैं कि आईपीएस में आने का ख्याल कब आया? मेरा जवाब होता है - कभी नहीं। स्कूल-कालेज के साल मजे में कटे। परीक्षाएं हाथ दिखाने का अवसर होती थी। हौसला इतना था कि लगता था कि जो एक दो हाथ-पैर का आदमी कर सकता है, मैं भी कर सकता हुँ। किसी ने कह दिया कि सिविल सेवा की परीक्षा दुनियाँ के जटिलतम में से एक है। मैंने कहा कि देखते हैं। टहलते हुए आईपीएस में पहुँच गया। संघर्ष या तो था नहीं या मुझे पता ही नहीं चला।
जिस भू और काल खंड से मैं आया हुँ वहाँ सरकारें नदारद थी। भले की तो भूल जाइए। बुरे में भी बुरा से बुरा हो जाने के बाद ही पहुँचती थी। वो भी एक अतिरिक्त समस्या बनकर। इनके गाली-गलौज के शौक और लूट-बेगार के जुनून से बचने के लिए दैवीय कृपा से कम से कम चलने का मतलब ही नहीं होता था। बदमाशों का कुछ बिगड़ता नहीं था। भलों के लिए इज्जत बचानी मुश्किल होती थी।
व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि घर से हज़ारों मील दूर पहुँच गए। अब जब मैं ख़ुद ही सरकार था सो पहले दिन ही ठान लिया कि समाधान बनूँगा। ज़िले और रेंज में रहे तो अपने मातहतों को कहते रहे कि लोगों पर तरस खाओ। हज़ारों साल की ग़ुलामी के बाद पहली बार राहत की साँस ले रहे हैं। क़ानून समझने की कोशिश कर रहे हैं। गलतियों और बेवक़ूफ़ी के लिए माफ़ करो। बदमाशी और ठगी के लिए तो बेशक रगड़ दो। जो ख़ुद नहीं करते वो सुविधा दूसरे को कहाँ से दें? जो मेरे ऊपर थे उनको कहा कि जिस बात से किसी के फ़ायदे के लिए मेरा या किसी अन्य का नुक़सान ना होता हो बेझिझक फ़रमाएँ। तब का दिन है और आज। चौतीस साल हो गए हैं। मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं आई।
कुछ बड़ा करने की सोच ने मुझे हमेशा चलाए रखा है। शुरू के दिनों में एक ओहदेदार के बारे में किसी ने बताया कि इन्होंने ‘सर्व शिक्षा अभियान’ नाम की बड़ी स्कीम चलाई है। फौरन दिमाग़ में आया कि मैं भी कुछ ऐसा ही करूँगा। सालों बाद सरकार ने खेल विभाग का जिम्मा दिया। लोग जब मेडल के जश्न में डूबे थे, मैंने बच्चों को खेल में मैदान में लाने की ठानी। दिव्याँग खिलाड़ियों को बराबरी का दर्जा दिलाने की सोची। अनुसूचित जाति के खिलाड़ियों के लिए विशेष प्रोत्साहन को प्राथमिकता बनाया। मुझे किसी ने नहीं रोका। ‘स्पैट स्कालरशिप स्कीम’ में हर साल पंद्रह लाख बच्चे भाग लेते थे। स्टेडियम तीन महीने खचाखच भरा रहता था। दिव्याँग और सामान्य वर्ग के खिलाड़ियों को एक जैसी सुविधाएं मिलने लगी। ‘फ़ेयरप्ले स्टाइपेंड स्कीम’ में वंचित जाति के खिलाड़ियों को हज़ारों रुपैये का मासिक स्टाइपेड मिलने लगा। ‘प्ले फॉर इंडिया’ स्कीम ने हरियाणा को पूरे देश में खेलों को प्रोत्साहित करने वाला अग्रणी राज्य बना दिया।
चुनौती स्वीकार करने का क्रम ऐसे ही चलता रहा। सवेरे की दौड़ में मेरे एक कोच ने कहा कि न्यूजीलैंड में एक रनर है जिसके साथ घड़ी मिलाकर बीसियों शहर में पाँच हज़ार लोग दौड़ते हैं। तलवार फिर खींच गई। मैंने कहा कि एक दिन मैं अपने साथ पचास हज़ार को दौड़ाऊँगा।
सालों बाद जब पुलिस में लौटा तो एसएचओ को थाने से बाहर निकलने और लोगों से सरोकार रखने के लिए मैंने जिला मैराथन की तरकीब भिड़ाई। उनको कहा कि आप अपने इलाके के पचास ऐसे लोगों से वर्किंग रिलेशन बनाओ जिनके प्रभाव में बीस-तीस लड़के-बच्चे हों। मैं दस दिन के नोटिस में साल में एक बार ज़िला मैराथन कराऊँगा। आपको इन सबको उसमें भाग लेने के लिए प्रेरित करना है। सोच थी कि इसी बहाने वे थाने से बाहर निकलेंगे, गाड़ियों से उतरेंगे, लोगों से बात करेंगे। मेरी मानना है कि जिस थानेदार की पहुँच हज़ार लोगों तक है वो कभी मार नहीं खा सकता। पहले आयोजन में ही पचास हज़ार लोग उत्साह पूर्वक दौड़े।
आरक्षण आंदोलन में जब विभाजन गाँव-गाँव तक पहुँच गया था, ज़िला मैराथन ने माहौल बदलने में बड़ी मदद की। अब तो सरकार जनसंपर्क के लिए इसका नियमित आयोजन करती है।
पिछले अक्टूबर दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बीच राज्य पुलिस प्रमुख बनने का अवसर मिला। बड़ी चुनौती थी। हर जगह से लोग पूछते थे कि ये क्या हो रहा है। मैंने कहा कि कुछ नहीं। नीति बनाई कि ठाले नहीं बैठूँगा, चुप नहीं रहूँगा। बंद कमरे में मीटिंग-मीटिंग खेलने के बजाय बाहर निकला। पुलिस के जवानों और अधिकारियों को हिंदी में कहा कि लोगों से कायदे से पेश आयें, ठगों-बदमाशों को जेल छोड़कर आयें। सुरक्षा के नाम पर लोगों की मुश्किलें ना बढ़ायें। मीडिया के माध्यम से जो जैसे थे उनको वैसा कहा। शुरू में तो कुर्सी से तौलिए हटाने एवं टेबल छोटा करने की बात लोगों को बड़ी भायी। एक दुपहिए, चौपहिया पर लगाम कसने की बात इसपर सवार होकर इतराने वालों को बड़ी अखरी। लेकिन सौ में पंचानवे ने कहा कि बात तो ठीक है। आज़ादी के सात दशक बाद भी मुट्ठी भर लोग हैं जो अपने को क़ानून से ऊपर समझते हैं और लोगों को गाजर-मूली।
पचास दिन होने को हैं। बदमाश या तो जेल में हैं या पैर सिर पर लेकर भाग रहे हैं। पीड़ित और जरूरतमंद बेझिझक मेरे दफ्तर आते हैं, बेख़ौफ मुझसे बात करते हैं। मैंने इनके लिए सभागार खोल रखा है। कह रखा है कि कुछ खिला-पिला दो, दूर-दराज़ से आये हैं। लेकिन दिन में एक-दो मिल ही जाते हैं जो अपने को ‘डीप स्टेट’ समझते हैं। दिल से मानते हैं कि वे क़ानून से ऊपर हैं। मुझे हँसी आती है। दिमाग़ में मुकेश का एक पुराना गाना चल पड़ता है - ‘एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल’।
प्रजातंत्र है सो आलोचकों की भारी-भरकम फौज है। उनसे मेरा आग्रह है कि चेले-चपाटे जो टॉकिंग पॉइंट बनाते हैं को शोध करने को कहें। बेसिरपैर के हाँकते रहते हैं। पुलिस के जवान अकेले है जो बदमाशों से खुलेआम दिन-रात बिना डरे-थके लड़ते है। घर अकेले जाते हैं। अकेले सोते हैं। कोई सुरक्षा का घेरा इनके लिए नहीं होता। ये अपना ख्याल रख सकते हैं। फिर भी एक कृतज्ञ नागरिक बनें। लोगों के लिए जान अड़ाने वाले जवानों को जादू की एक झप्पी दें।
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